संस्मरण >> याद हो कि न याद हो याद हो कि न याद होकाशीनाथ सिंह
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
काशीनाथ जी ने संस्मरण को अकेले जितना दिया है किसी एक विधा को कोई एक कलम बिरले ही दे पाती है ! धर्मोचित श्रद्धा जिनकी ध्वजवाहक है, उन तमाम भीनी-भीनी भावनाओं में रसी-बसी, चीमड़-सी विधा उनके यहाँ आकर खेलने लगती है ! किसी को याद करके वे न तो कोई शास्त्र-सम्मत ऋण चुकाते हैं, न उसके छिद्रों से अपनी महानता पर रोशनी फेंकते हैं, वे उस व्यक्ति, उस स्थान, उस समय को उसकी हर सलवट समेट भाषा में रूपांतरित करते हैं, और कुछ ऐसे कौशल से कि उनका विषयगत भी वस्तुगत होकर दिखाई देता है ! इस जिल्द में चित्रित हजारीप्रसाद द्विवेदी, धूमिल, त्रिलोचन, नामवर सिंह, अस्सी, बनारस और इन सबके साथ लगा-बिंधा वह समय आपको कहीं और नहीं मिलेगा !
आप खुद भी उन्हें उस तरह नहीं देख सकते जिस तरह इन संस्मरणों में उन्हें देख लिया गया है ! यह भाषा, जो अपनी क्षिप्रता में फिल्म की रील को टक्कर देती प्रतीत होती है, आपको सिर्फ चित्र नहीं देती, पूरा वातावरण देती है जिसमे और सब चीजों के साथ आपको देखने का तरीका भी मिलता है ! इन संस्मरणों को पढ़कर हम जान लेते हैं कि अपने किसी समकालीन को देखें तो कैसे देखें, अपने जीवन में रोज-रोज गुजरनेवाली किसी जगह को जिएं तो कैसे जिएं और अपने समय को उसकी औकात बताते हुए भोगें तो कैसे भोगें !
आप खुद भी उन्हें उस तरह नहीं देख सकते जिस तरह इन संस्मरणों में उन्हें देख लिया गया है ! यह भाषा, जो अपनी क्षिप्रता में फिल्म की रील को टक्कर देती प्रतीत होती है, आपको सिर्फ चित्र नहीं देती, पूरा वातावरण देती है जिसमे और सब चीजों के साथ आपको देखने का तरीका भी मिलता है ! इन संस्मरणों को पढ़कर हम जान लेते हैं कि अपने किसी समकालीन को देखें तो कैसे देखें, अपने जीवन में रोज-रोज गुजरनेवाली किसी जगह को जिएं तो कैसे जिएं और अपने समय को उसकी औकात बताते हुए भोगें तो कैसे भोगें !
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